वांछित मन्त्र चुनें

श॒तं वा॒ यः शुची॑नां स॒हस्रं॑ वा॒ समा॑शिराम्। एदु॑ नि॒म्नं न री॑यते॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śataṁ vā yaḥ śucīnāṁ sahasraṁ vā samāśirām | ed u nimnaṁ na rīyate ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

श॒तम्। वा॒। यः। शुची॑नाम्। स॒हस्र॑म्। वा॒। सम्ऽआ॑शिराम्। आ। इत्। ऊँ॒ इति॑। नि॒म्नम्। न। री॒य॒ते॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:30» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:28» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:2


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो शुद्ध गुण, कर्म, स्वभावयुक्त विद्वान् है, उसी से यह जो भौतिक अग्नि है, वह (निम्नम्) (न) जैसे नीचे स्थान को जाते हैं, वैसे (शुचीनाम्) शुद्ध कलायन्त्र वा प्रकाशवाले पदार्थों का (शतम्) (वा) सौ गुना अथवा (समाशिराम्) जो सब प्रकार से पकाए जावें, उन पदार्थों का (सहस्रम्) (वा) हजार गुना (आ) (इत्) (उ) आधार और दाह गुणवाला (रीयते) जानता है॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। यह अग्नि सूर्य और बिजली जो इसके प्रसिद्ध रूप हैं, सैकड़ों पदार्थों की शुद्धि करता है और पकने योग्य पदार्थों में हजारों पदार्थों को अपने वेग से पकाता है, जैसे जल नीची जगह को जाता है, वैसे ही यह अग्नि ऊपर को जाता है। इन अग्नि और जल को लौट-पौट करने अर्थात् अग्नि को नीचे और जल को ऊपर स्थापन करने से वा दोनों के संयोग से वेग आदि गुण उत्पन्न होते हैं॥२॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

अन्वय:

पवित्रश्चोपचितो विद्वान् योऽग्निर्भौतिकोऽस्ति सोऽयं निम्नमधः स्थानं गच्छतीव शुचीनां शतं शतगुणो वा समाशिरां सहस्रं वैद्वाधारभूतो दाहको वा रीयते विजानाति॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शतम्) असंख्यातम् (वा) पक्षान्तरे (यः) बहुशुभगुणयुक्तो जनः (शुचीनाम्) शुद्धानां पवित्रकारकाणां मध्ये। शुचिश्शोचतेर्ज्वलतिकर्म्मणः। (निरु०६.१) (सहस्रम्) बह्वर्थे (वा) पक्षान्तरे (समाशिराम्) सम्यगभितः श्रीयन्ते सेव्यन्ते सद्गुणैर्ये तेषाम्। अत्र श्रयतेः स्वाङ्गे शिरः किच्च। (उणा०४.२००) अनेनासुन् प्रत्ययः शिर आदेशश्चासुनि। (आ) आधारार्थे (इत्) एव (उ) वितर्के (निम्नम्) अधःस्थानम् (न) इव (रीयते) विजानाति। रीयतीति गतिकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१४)॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। अयमग्निः सूर्यविद्युत्प्रसिद्धरूपेण शतशः शुद्धीः करोति पच्यमानानां पदार्थानां मध्ये वेगैस्सहस्रशः पदार्थान् पचति, यथा जलमधःस्थानमभिद्रवति तथैवायमग्निरूर्ध्वम् अभिगच्छत्यनयोर्विपर्यासकरणेनाग्निमधः स्थापयित्वा तदुपरि जलस्य स्थापनेन द्वयोर्योगाद् वाष्पैर्वेगादयो गुणा जायन्त इति॥२॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. सूर्य व विद्युत ज्याची प्रसिद्ध रूपे आहेत तो अग्नी शेकडो पदार्थ शुद्ध करतो व पचण्यायोग्य हजारो पदार्थांना शिजवितो. जसे जल खालच्या बाजूला वाहते तसा अग्नी वर जातो तेव्हा अग्नी व जलाचा विपर्याय करून अर्थात अग्नीला खाली व जलाला वर स्थापन करून किंवा दोन्हींचा संयोग करून वेग इत्यादी गुण उत्पन्न होतात. ॥ २ ॥